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अ॒भि व्य॑यस्व खदि॒रस्य॒ सार॒मोजो॑ धेहि स्पन्द॒ने शिं॒शपा॑याम्। अक्ष॑ वीळो वीळित वी॒ळय॑स्व॒ मा यामा॑द॒स्मादव॑ जीहिपो नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhi vyayasva khadirasya sāram ojo dhehi spandane śiṁśapāyām | akṣa vīḻo vīḻita vīḻayasva mā yāmād asmād ava jīhipo naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि। व्य॒य॒स्व॒। ख॒दि॒रस्य॑। सार॑म्। ओजः॑। धे॒हि॒। स्प॒न्द॒ने। शिं॒शपा॑याम्। अक्ष॑। वी॒ळो॒ इति॑। वी॒ळि॒त॒। वी॒ळय॑स्व। मा। यामा॑त्। अ॒स्मात्। अव॑। जी॒हि॒पः॒। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» मन्त्र:19 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अक्ष) विद्याओं से व्याप्त ! आप हम लोगों में (खदिरस्य) इस काष्ठ के (सारम्) दृढ़ भाग के सदृश (ओजः) बल को (धेहि) धारण कीजिये (शिंशपायाम्) इस काष्ठ को वृक्षविशेष (स्पन्दने) कुछ चलने में (अभि) सबप्रकार (व्ययस्व) खर्च करो। और हे (वीळो) बलयुक्त और (वीळित) बहुतों में प्रशंसित पुरुष ! (नः) हम लोगों को (वीळयस्व) प्रेरणा करो (अस्मात्) इस (यामात्) प्रहर से (मा) नहीं (अव, जीहिपः) त्यागिये ॥१९॥
भावार्थभाषाः - हे आचार्य्य ! हम लोगों में दृढ़ बल को धारण करो, श्रेष्ठ कर्मों में हम लोगों की प्रेरणा करो और कभी मत त्याग करो ॥१९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अक्ष ! त्वमस्मासु खदिरस्य सारमिवोजो धेहि शिंशपायां स्पन्दन इवाऽभिव्ययस्व। हे वीळो वीळित नोऽस्मान् वीळयस्वाऽस्माद्यामादस्मान्माव जीहिपः ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभि) सर्वतः (व्ययस्व) व्ययं कुरु (खदिरस्य) एतत्काष्ठस्य (सारम्) दृढभागमिव (ओजः) बलम् (धेहि) (स्पन्दने) किञ्चिच्चलने (शिंशपायाम्) एतत्काष्ठे वृक्षविशेषे (अक्ष) व्याप्तविद्य (वीळो) बलवन् प्रशंसितस्वभाव (वीळित) बहुभिः प्रशंसित (वीळयस्व) प्रेरयस्व (मा) निषेधे (यामात्) प्रहरात् (अस्मात्) (अव) (जीहिपः) त्याजयेः (नः) अस्मान् ॥१९॥
भावार्थभाषाः - हे आचार्य्य ! अस्मासु दृढं बलं धेहि सत्कर्मस्वस्मान् प्रेरय कदाचिन्मा त्यजेः ॥१९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे आचार्य! आम्हाला दृढ बलयुक्त करा. श्रेष्ठ कर्म करण्यासाठी प्रेरणा द्या. आमचा कधी त्याग करू नका. ॥ १९ ॥